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सच है पार्ट -1

 परस्पर निःस्वार्थ प्रेम से ही

समग्र का विस्तार संभव है।


जैसा चाहिए, वैसा देना भी होता है। 


प्रथम दृष्टया

"सम्मान" 

उम्र, पद, स्थान का एक लिहाज है,

जिसके एवज में एक दूसरे के प्रति

संस्कारिक लेनदेन होता है।

उम्र के लिहाज के उस पार

उम्रदराज से सच्चे स्नेह की स्वाभाविक अपेक्षा जन्म लेती है। 

यदि किसी भी तरफ से कोई आभाव छूटता है तो प्रभाव भी दिखता है।


"सम्मान" उन्हीं दो के बीच ठहरता है।

जहाँ परस्पर लेन देन किसी भी स्तर पर छोटे बड़े के भेद भाव से दूर सच्चाई में होता है।


सहयोगी स्वभाव सर्वत्र सम्मानित होता है।


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"रिश्तों का सत्य"


सबसे जटिल मन है। 

जिसे सबकुछ अपने मन का ही चाहिए। 


वहीं मन के स्तर पर 

सबका अपना अपना मन है।


जो आपस में एकमन नहीं हो पाते।

परस्पर एक दूसरे का विरोध बन जाते हैं।

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"यदि "मन" एक दूसरे के मन को सहयोगी दृष्टि से स्वीकार करके।"

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सबके "मन का सम्मान" सुनिश्चित हो सकता है।


अन्यथा अपने अपने मन का अंतर्द्वंद कभी भी चैन से जीने नहीं देगा।


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मेरा कोई भी लेख, कविता, क्रिटिक्स, कभी किसी अन्य को परिवर्तित करने के लिए नहीं है, मैं स्वयं को जान सकूं की एक कोशिश है जिंदगी के हर पहलू को समझ पाऊं, जहाँ कहीं सुधार जरूरी है सुधार पाऊं खामियां बहोत हैं मुझमें। कोशिश है सबके जैसा हो जाऊं। अनुभव कहता है कोई खुद, कभी गलत नहीं होता। सबकी इस कोशिश में, मैं उसके साथ खड़ा हो जाऊं, हाँ में हाँ मिलाऊँ, सोचता हूँ अब समझदार हो जाऊं।


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जीवन का कठिनतम वक्त भी 

अच्छे के लिए ही घटित होता है।

जन्म लेने से मृत्यु तक जीवन एक कहानी है और इस कहानी अचानक से अलग पीछे का छूटा आज से बेहतर ही दिखेगा। और यदि आज पिछले वक्त से बुरा कुछ दिखाई दे रहा है तो इसका सीधा अर्थ है कि आने वाले कल में अवश्य ही अच्छा आने वाला है आपको आपके सोच के अनुकूल अवश्य मिलता है साथ ही ऐसा भी मिलता है जो आपने कभी सोचा ही नहीं होता।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है जैसे तूफान का बाद सब व्यवस्थित हो ही जाता है। वैसे ही बुरे के बाद सब अच्छा हो ही जाता है। धैर्य रखिये वक्त सब अच्छा कर देगा।


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यदि कहीं भी मन का न हो रहा हो तो, तटस्थ रहते हुए, ऐसे नजरअंदाज करें कि कोई अपमानित महसूस ना करे, थोड़ी सी मुस्कान के साथ वहीं का वहीं छोड़ दिया जाय तो, सहज होगा, किसी के मन के अनुसार न होकर भी खुश रहना।


जीवन में सहजता और संतुलन बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को अन्य दृष्टिकोणों से समझने का प्रयास करें:


1. तटस्थ रहना : जब चीजें हमारे मन के अनुसार नहीं होती हैं, तो तटस्थ रहना एक महत्वपूर्ण कौशल हो सकता है। इससे हम भावनात्मक रूप से अधिक स्थिर और संतुलित रह सकते हैं।


2. नजरअंदाज करना : नजरअंदाज करना एक तरीका हो सकता है जिससे हम अनावश्यक तनाव और संघर्ष से बच सकते हैं। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि हम इसे सही तरीके से करें और महत्वपूर्ण मुद्दों को नजरअंदाज न करें।


3. मुस्कान के साथ छोड़ देना : थोड़ी सी मुस्कान के साथ चीजों को छोड़ देना एक अच्छा तरीका हो सकता है जिससे हम जीवन में सहजता और सकारात्मकता बनाए रख सकते हैं। इससे हम अपने मानसिक स्वास्थ्य को भी बेहतर बना सकते हैं।


4. सहज रहना : सहज रहना एक महत्वपूर्ण जीवन कौशल है जो हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मदद कर सकता है। जब हम सहज रहते हैं, तो हम अधिक शांत और संतुष्ट महसूस करते हैं।


जीवन में सहजता और संतुलन बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण, जिस पर विचार करना और समझना आवश्यक है ताकि हम अपने जीवन को अधिक सकारात्मक और संतुष्ट बना सकें।


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ये क्या जगह है दोस्तों?

जो मन को किसी दैवीय अस्तित्व की अनुभूति कराता

सपनों के उस दिव्य शहर को ले जाता 

जहां सुकून शान्ति की आगोश में

नैसर्गिकता की धुन पर 

दिल के तारों को छेड़ता 

कोई कर्णप्रिय हृदयानुरागी नज्म सुनाता


सपनों के उस दिव्य शहर को ले जाता 


जहां "जीने की चाहत" चौगुनी 

इन उमड़ते बादलों की स्वतंत्रता में

मानो ध्यानमग्न, एकाकी, निष्कंटक, निर्विकार मनचाही दिशा में 

किसी परम प्रिय की खोज में,

आत्मा के विनोद में,

प्रकृति के समागम में,

डूबकर वो सब जी लेना चाहती है।

जिसे कल्पनाओं के शहर कहीं आसमानों में,

नींद के बेखबर आयामों में, 


जहां समाधिस्थ अनूठे क्षणों के अप्रतिम अहसास को, 

जैसे हर पल जीने की जिद्द कर बैठी हों।


ऐसी जगह है ये दोस्त!❤️


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[6/29, 21:18] Niraj: वो आंखे कैसी आंखे हैं

जिन आंखों से झरना बहा नहीं

वो मुख भी कैसे मुख हैं 

जिनसे सत्य कभी भी कहा नहीं

वो जिह्वा कैसी जिह्वा है

जिसने तीखे को चखा नही

वो प्यार कहाँ से प्यार रहेगा

[6/29, 21:47] Niraj: वो जो खिलाफ है हवा 

उसे रहने दो

फिक्र वो करें 

जिन्हें हवा के विपरीत 

चलना नहीं आता है।

[6/29, 23:01] Niraj: जब इस दुनियां में हर ओर सब असहज दिखाई देने लगे, भीड़ से मन भागने लगे, आलोचना पीछा करे, कोई उपहास करे, दूसरों के दर्द में करुणा बरसने लगे, बाहर अव्यक्त, अप्रत्यक्ष विरोध दिखने लगे, भीतर शान्ति फैलने लगे तो समझना कि चेतना के स्तर पर भीतर कुछ परिवर्तन हो रहा है, दोस्त यार, रिश्ते

[6/30, 00:06] Niraj: सब कुछ सामान्य होते हुए भी असहज लग रहा हो ऐसा लगे कि इसी भीड़ का हिस्सा होते हुए भी भीड़ से अलग यदि एकांत प्रिय लग रहा हो यह जीवन भीतर की ओर किसी ऐसी रहस्य मयी गहराई की ओर जा रही हो जिसका आकर्षण परमात्म मिलन सा महसूस हो रहा हो हर आत्मा तब तक बार बार जन्म लेने के चक्र में तब तक बेचैन ही रहती है जब तक अपने उद्गम को प्राप्त नहीं हो जाती, ऐसी स्थिति तब उतपन्न होती है जब ईश्वर की विशेष कृपा होती है। 


चेतना की उच्चता जब तक परमात्म प्राप्ति के स्तर तक सिद्ध नहीं हो जाती, जन्म मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिल सकती।



जब दुनिया खिलाफ लगने लगे

फिर भी मन शांत रहने लगे

जब ऐसा महसूस होने लगे कि लोगों को तुम्हारी बातें समझ में नहीं आती हैं लोग तुम्हें गलत समझने लगे हैं, तुम्हारे फैसलों पर हंसेंगे, तुम्हारे एकांत को तुम्हारी कमजोरी समझेंगे इन सारी विषमताओं के बावजूद तुम्हें भीतर अंतर्मन में सब शांत महसूस हो रहा हो, बाहर आलोचना हो, भीतर स्वीकृति, बाहर तूफान हो, बाहर एकांत है भीतर ईश्वर की उपस्थिति, 

भीतर शांति तो समझना कि जीवन के भीतर परमात्मनोन्मुखी यात्रा की शुरुआत हो चुकी है।

अब तुम्हें ऐसा महसूस होगा कि कोई तुम्हे भीतर से रोम रहा हो सब स्वीकार करने की नसीहत दे रहा हो जब कोई तुम्हारे खिलाफ हो तब भी तुम प्रतिक्रिया नहीं करते जब भी कोई तुम्हारे सपनों का मजाक बनाए तब भी तुम मुस्कुरा सकते हो ये सब यूँ ही नहीं होता ऐसा तभी होता है जब ईश्वरीय ऊर्जाएं तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करने लगती हैं ऐसा तभी संभव होता है जब चेतना का स्तर इस अवस्था की सिद्धि प्राप्त कर लेगी। ऐसी स्थिति में समाज, दोस्त व परिवार सब साथ छोड़ने लगते हैं। बाहर इन तमाम विषमताओं के बावजूद यदि भीतर बस शांति है तो इसका अर्थ है कि अब दुनिया के सारे आकर्षण भी फीके लगने लगेंगे। क्योंकि अब आत्मा का स्तर ऊंचा होने लगा है अब उसे सत्य चाहिए। अब आत्मा जानना चाहती है मैं कौन हूँ मैं कहाँ से आया हूँ वैराग्य का मतलब संसार को त्यागना नहीं होता बल्कि संसार का सत्य को समझना होता है और यह आत्मा की जागृत अंतरदृष्टि से संभव होता है संसार की समग्र विषमताएं स्वतः प्रतीत होने लगती हैं।

यहाँ समझने वाली बात है कि इस वृत्ति का व्यक्ति अब कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि अब एक साधक बन चुका है। जब चेतना ईश्वर की ओर बढ़ने लगती है तो उसका संसारी सुविधओं से मोह भंग होने लगता है।

[6/30, 07:40] Niraj: देखता हूं मैं जब कभी

आम के इस पेड़ को


झूमती इन डालियों को

पत्तियों के परस्पर स्नेह को


मौसमों की मार में भी

[6/30, 07:58] Niraj: जिस दुनियाँ के लिए आप बने हैं, 

वहीं संतृप्त, शांत व संतुष्ट हो सकते हैं। फिक्र न करें कहां से क्या मिलता है

[6/30, 08:32] Niraj: "सीखने की जिज्ञासा" 

भीतरी तल पर स्वतः जागृत हो 

तो अंतर्दृष्टि ही विश्विद्यालय बन जाता है। जो आयोजित नहीं अपितु स्वतः उद्भूत होती है।

[6/30, 08:35] Niraj: कभी घबराना नहीं 

तुम्हारे जीवन की मुश्किलें 

तुम्हारी बेहतरी के लिए है।

[6/30, 08:36] Niraj: वो जो तुम्हें चाहिये

उसे देने के रास्ते 

तुम्हारे सोच के साथ ही प्रकृति

[6/30, 08:43] Niraj: न जाने क्यों कभी किसी से बात करके ऐसा महसूस होता है कि हृदय तल पर वो अपना नहीं है वो बस एक औपचारिकता है। ऐसा आत्मा के तल पर समकक्षता न होने की वजह से होता है।

[6/30, 08:54] Niraj: जिस दुनियाँ के लिए आप बने हैं, 

वहीं संतृप्त, शांत व संतुष्ट हो सकते हैं अतः आपके अनुकूल यथोचित में आपको आपका स्थान अवश्य प्राप्त होगा, इसी मौलिक अंतर के कारण हर जगह सहजता महसूस नहीं होती, फिक्र न करें की कहाँ से क्या मिलता है।

[6/30, 09:40] Niraj: कई बार आपसे दूरी का कारण आपकी अयोग्यता ही नहीं होती।

आपकी योग्यता यदि औरों से भिन्न हो जाए तब भी आप अलग छोड़ दिए जाएंगे।

[6/30, 09:56] Niraj: जब भीतरतम तल ईश्वर भक्ति से सराबोर होगा अर्थात जीवन का सब ईश्वर को समर्पित होगा, तो तुम्हारे मौन में ही इतनी ताकत होगी कि बाहरी शोर स्वतः शांत होगा।

[6/30, 10:04] Niraj: अब जब आलोचना, मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा, लोभ ही समाप्त हो चुका हो तो किसका कैसा व्यवहार है से क्या फर्क पड़ता है। आम के पेड़ को क्या फर्क पड़ता है, कौन छांव के लिए बैठा है, कौन आम के लिए, या कौन डालियों को तोड़ता है, या कौन पूरा पेड़ ही काट लेता है। वृक्ष का प्रारंभिक अथवा अंतिम सरोकार बिना किसी विरोध के प्रकृति से उद्भूत उसी समाहित होना है। इस दुनियां से प्राप्त जब सब स्वीकार है, तो वृक्ष की तरह कहीं खड़े रहकर सबकुछ स्वीकार कर लेना ही जीवन का आनंद बन जाता है।

[6/30, 10:56] Niraj: किसी का नुकसान कर देने या

किसी का कुछ छीन लेने से 

क्या हो जाएगा। 

मरना उसे भी मर ये भी जाएगा।

इस छीन लेने के क्रम में, 

जब छीनना ही व्यवहार बन जायेगा। 

भौतिक कुछ इकट्ठा करके भी 

मन बेचैन व जीवन सत्य के आभाव में

रिक्त ही रह जाएगा।

[6/30, 12:02] Niraj: इंसान प्रोमिट किसे करता है

सीधा जवाब है जिसे प्रमोट करने से अपनी कुर्सी पर कोई असर नहीं पड़ता है।


क्या बिना किताब छपे 

कोई लेखक नहीं होता 


कोई किताब 

बिना लेखक के नहीं छप सकती।

लेकिन बिना किताब के ही 

कोई भी व्यक्ति लेखक हो सकता है।


तो ये पूछना क्या बेवकूफी नहीं है कि अबतक आपकी कोई किताब छपी या नहीं।

अरे किसी लेखन यह तय करता है कि

वो लेखक है या नहीं नकी कोई किताब तय करती है कोई लेखक है।

 लेखक बनाना और जन्मतः लेखक होना दोनों अलग बात है।

[6/30, 12:17] Niraj: आज वो पहचान में ही 

नहीं आ रहा था।


जिससे पहचान बनाने को 

कभी मैं आतुर खड़ा था।


कभी एड़ियां रगड़ते जिसके पीछे खड़ा था।


आज वही आंखों के सामने अजनबियों की तरह खड़ा था।

[6/30, 12:56] Niraj: सबकुछ नियंत्रण में है 

बस मन को छोड़कर

मन को नियंत्रित कर लो

सबकुछ को छोड़कर

[6/30, 13:02] Niraj: सभी शरीरी इंद्रियों का 

नियंत्रण मन के बस में है।

और मन पर ध्यान का नियंत्रण है।

परन्तु ध्यान चयन का विषय है, जबकि मन अज्ञान का। अज्ञानी कभी भी ध्यान का चयन नहीं करता है।

[6/30, 15:50] Niraj: किसी की हैसियत कैसे नापी जा सकती है, जबकि स्वयं की हैसियत आमतौर पर एक मिनट से ज्यादा सांस घुट जाने पर जान से हाथ धो देने जितनी ही है, ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है।

अर्थात जब जीवन की बात आती है तो किसी की कोई हैसियत हो ही नहीं सकती।

[6/30, 16:13] Niraj: स्वयं के व्यवहार का संचालन 

आत्मा के सुपुर्द छोड़ देना सबसे प्रेम हो जाने का रास्ता है क्यों कि आत्मा स्वयं के अस्तित्व में सत्य व आत्म विनोदी है। यह स्वयं की व्यपकता में सारे आयामों को प्रेम में परिवर्तित करने की अद्भुद क्षमता है।

[6/30, 16:25] Niraj: संबंधों का अजीब दस्तूर है कोई अजनबी कब आपसे प्रभावित होकर आपका प्रिय बन जायेगा कब पुनः अजनबी बन जायेगा कुछ भी निश्चित नहीं है। ऐसे यवहार के एक वजह है कि वह सतही स्तर के जुड़ाव की ही समझ रखता है उसे आजाद रखिए जाने दीजिए ठहराव स्वयं की समझ का व्यवहार है मंदिर बदलने से भगवान नहीं बदलता, जिस मंदिर में भीड़ ना हो तो मतलब यह नहीं की वहाँ भगवान नहीं रहता वास्तव में यदि स्वयं के ज्ञान पर विश्वास न हो तो सतही ज्ञान भीड़ में ही भगवान को ढूंढता है जबकि भगवान भीतरी एकांत का विषय है सबसे सिद्ध मंदिर स्वयं के भीतर स्वयं आत्मा है इसकी पूजा में जो जागता रहा सब उसके पास सब आएगा।

[6/30, 18:02] Niraj: स्वयं के साथ जीने की कला जितनी भी जल्दी से सीख लिया जाय उतना बेहतर है।

क्योंकि सभी के जीवन में एक ऐसा दिन अवश्य आना है जब प्रकृति के नियमों की गति में सभी को कमजोर व पुराना होना है जहाँ युवा पीढियां स्वयं के इंतजामों में व्यस्त आपको स्वाभाविक रूप से बीती कहानी की तरह मानने लगती है, और पुरानी पीढ़ियों को अकेलापन जीने को बाध्य होना पड़ता है, जिसका कोई विकल्प आज की आर्थिक आत्मनिर्भरता को बाध्य वर्तमान पीढ़ियों के पास नहीं होता है। अतः बेहतर है कि अकेले जीने के अभ्यास होते रहे। बिल्कुल अकेले जीवन साथी भी हमेशा साथ रहे ऐसा आवश्यक नहीं है। किसी न किसी को पहले जाना होता है। अतः अकेले जीने के अभ्यस्त रहेंगे तो जीवन आसान होगा।

[6/30, 18:11] Niraj: जब भी किसी के साथ बैठे स्वयं के ज्ञान की सीमाओं के विस्तार पर दृष्टि केंद्रित रखें। अर्थात गुरु सिर्फ रास्ता दिखता है कुछ केंद्रीय आवश्यक सूत्र बताता है उसके आगे की ज्ञान यात्रा को जारी रखना आपका अपना विजन होना चाहिए अन्यथा आप अपने गुरु के फॉलोवर से ज्यादा कुछ भी नहीं बन पाएंगे।



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