तो स्वयं बुद्ध् भी बुद्ध् न बन पाते
एक वृक्ष के भीतर के अहसास को जानना हो तो वो कैसे जानेगे‚ पहले वो उसे काटेंगे‚ फिर उसे छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ेगे और जानने का प्रयास करेंगे कि वृक्ष कैसे निर्मित हुआ। वो वृक्ष को चाहे जितने टुकड़ों में भी विभाजित कर ले उसके उदभव के रहस्य को नहीं जान पाएंगे। जिस पल उस लकड़ी को काटा उसे हानि पहुँचाई उसी पल वे उसके उद्भव के रहस्य को जानने का अधिकार खो दिया। इस रहस्य को तो परमात्मा ही जानता है।
जो किसी को मिटा कर अपने लिए खुशियों के सूत्र तलाशता है।
वह तो स्वयं के मन भूमि पर ही सृजन के महत्व को न पहचानने का बीज बोता है ।
अब वो क्या जानेगा किसी को‚
जानना है तो जीवन देने की प्रक्रिया में आना होगा‚ निर्माण की प्रक्रिया में आना होगा‚ उद्भव के संस्कार में आना होगा। जीवन छीनकर तो बस राक्षस बना जा सकता है।
परमात्मा को पाने का रास्ता मौन से होकर गुजरता है। सृजन से होकर गुजरता है। परमात्मा को शोर से नहीं पाया जा सकता । क्योंकि इस जगत में जिसने भी उस अहसास को पाया‚ उसके भीतर की शांति बड़ी गहरी रही है। शांति मौन से ही आ सकती है। मौन का अर्थ है विचार शून्यता जहाँ कोई विचार शेष न बचा हो प्रे म से हृदय और प्रार्थना से नम आंखे हो करोड़ो प्रयासों के बावजूद भी वैज्ञानिक इस जगत के केन्द्र तक नहीं पहुँच पाए‚ इस जगत की धड़कन को नहीं सुन पाए‚ क्यों कि वैज्ञानिक जिस रास्ते से गुजरते है उस पर दिमाग से ही चला जा सकता है हृदय से नहीं। वैज्ञानिकों के पास हर चीजों को तोड़ मड़ोरकर देखने के सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं होता।
ईश्वर कैसा दिखता है या कौन है?
यह सिर्फ मौन में ही जाना जा सकता है।
मौन में ही उसे पाया जा सकता है।
परमात्मा कभी मौन के आलावा कहीं और मिल सकता।
तो ʺस्वयं बुद्ध् भी बुद्ध् न बन पातेʺ
बुद्ध् ने जो कुछ भी पाया स्वयं के भीतर शांति में पाया।
और जिसने स्वयं के मौन में परमात्मा के सत्य को जान लिया ‚ वो तो खामोश हो जाता है।
हृदय में जितना प्रेम भरा होगा जितनी तुम्हारी आंखें प्रार्थना में डूबी होंगी‚ उतना ही तुम उस अनन्त के केन्द्र की
ओर बढ़ते जाओगे। उस शून्यता के दर्शन के करीब पहुँचते जाओगे।
साभार दक्ष वाणी
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