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स्त्री आज न तो स्त्री है ना ही पुरूष

 


जबकि स्त्री होना ही अपने आप में गरिमा‚ गर्व का विषय है तो पुरूष के समान बन जाने की कवायद क्यों? स्त्री स्वयं में स्वयं की वैभिन्न्ता के साथ अतुलनीय‚ सम्पूर्ण है‚ स्त्रीत्व की विविधता उसके गुणों की व्यापकता ही उसकी मुकम्मल पहचान है। वह जीवन दात्री है‚ क्या उसकी यह विशिष्ता पर्याप्त नहीं थी। वाे परिवार का एक सूत्र में परोती थी। क्या वह काफी नहीं था। किसने ये आग लगाई स्त्रियों को बराबरी का दर्जा मिलने की बराबरी का दर्जा ही दिलाना था तो जहॉ स्त्रियाँ उपेक्षित थीं उस समाज के पुरूषों के चारित्रिक सुधार की योजना चलाते‚ पुरूषों को मानवीयता की मर्यादा समझाते‚ आज स्त्रियों को जहाँ लाकर खड़ा कर दिया है । 


ʺवह आज न तो स्त्री है ना ही पुरूषʺ‚ 


मदिरा पीती स्त्री क्या स्त्रीत्व की गरिमा है। स्त्रियों को भ्रमित कर स्त्रियों का शोषण करने वाली गिद्ध जैसी घिनौनी सोच स्त्रियों के बारे में हमेशा दोहरा नजरिया रखती हैं‚ स्वयं के घर की बहू बेटियों को पर्दे में व बाहरी को नग्न देखना चाहती हैं। आखिर स्त्रियों के लिए बनाए जाने वाले कपड़े अजीबो गरीब कुष्तित कुंठित बुद्धि के निर्देशन में क्यों बनाए जाते है। अरे स्त्रियों की गरिमा ढके होने में है। उसकी लज्जा ही उसका आभूषण है। 


ईश्वर की इस सुन्दरतम कृति को सुन्दर रहने दो। 

इन मासूम हृदय स्त्रियों को इनके स्त्रित्व की गरिमा में सजने दो। 

मत तोड़ो इन बागों के फूलों को इन्हें फूलों सा रहने दो।


अच्छा लगता है जब इन्हें हम सम्पूर्ण ढका देखते हैं नग्नता की कल्पना ही नरक जैसा प्रतीत होता है। 

स्त्रियाँ जब तक ये नहीं समझती कि लोलुप‚ काम पिपासु निगाहें‚ उनका इस्तेमाल कर रही हैं‚ तब तक स्त्रियों के जीवन में सुधार सम्भव नहीं होगा। आने वाले समय में स्त्रियों की स्थिति बद से भी बदतर हो जाएगी उनकी कोमलता‚ उनकी सुन्दरता‚ उनकी प्रियता‚ उनके आँचल की ममता‚ उनमें भरा अगाध स्नेह‚ उनकी पवित्रता आदि गुणों से ही स्त्रियां सही मायनों में स्त्री ही हैं। आज की स्त्री का तमाशा बनाया जा रहा है और मजे की बात उन्हें तमाशा बनाने की वकालत में‚ उन्हें ही आगे किया जा रहा है ताकि उन्हें बेवकूफ बनाकर स्वयं के अनुसार उनका इस्तेमाल किया जाता रहे। 

स्त्री ही हमारी माता है‚ हमारी बहन है‚ हमारी बेटी है‚ हमारी बहू है‚ हमारी अध्यापिका है‚ हमारी शिष्या है‚ हमारी गुरू माता है‚ हमारी देवी है‚ माँ दुर्गा है‚ वही पार्वती और वहीं काली है उसे उसकी गरिमा लौटा दो।  उसके निर्मल मन ममता की मूरत को यूँ पवित्र रहने दो। 

सोचकर देखिए उस मंजर को जब स्त्रियाँ हर तरीके से पुरूषों की भांति ही हो जाएंगी तो क्या उनकी बायोलाजिक बनावट वैसी ही रह पायेगी उनके स्वभाव‚ हाव भाव सबमें पुरूषों जैसा परिवर्तन हो जाएगा। कोई बहोत बड़ी बात नहीं होगी बहुसंख्या में  स्त्रियों मातृत्व भाव का ही लोप हो जाएगा। प्रसव पीड़ा की कल्पना मात्र से उन्हें चिढ़ हो जाएगी और इस दौर से गुजरना ही नहीं चाहेंगी‚ उस समय क्या होगा प्रकृति की व्यवस्थाओं का‚ प्रकृति की जीवन से जीवन के व्यवस्था का ही अंत हो जाएगा। 

आज जो पति और पत्नि दोनों नौकरी पेशा हैं उनके बच्चों के पालन पोषण की स्थितियों का अवलोकन कर जी भर आता है जिन बच्चों को माता पिता‚ बाबा दादी‚ चाचा चाची‚ मामा मामी‚ नाना नानी का स्नेह चाहिए था उन्हें ʺआयाʺ (मेड) पालती है उन बच्चों के साथ बुरा बर्ताव करती है ऐसे बच्चों की अपने माता पिता के प्रति संवेदनाओं का क्या होगा?  कैसे वो अपने माता पिता के सही मायानों में अपने हो पाएंगे। 

आज जबकि स्थितियाँ‚ अभी विकृतता के उस स्तर तक नहीं पहुँची हैं‚ फिर भी वृद्धाआश्रमों की बढती संख्या चिन्तनीय है। आज मानवीय पीड़ी व संवेदनाओं में कुछ गनीमत जीवित है‚ तब ये हाल है‚ आने वाले वक्त में क्या होगा। 


अभी भी वक्त है स्त्रियों को स्त्री ही रहने दें उन्हें अपना घर बसाने दें। सिर्फ पैसों के चक्कर में परिवार की व्यवस्था को यूँ ही न मिट जाने दें। 

नीरज चित्रवंशी

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