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'दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्'


जौनपुर। समाधान न्यूज 365 #

'दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्' 

लेख – डॉ.अवनीत सोनकर(आई॰एम॰ओ)जिलाध्यक्ष जौनपुर

यजुर्वेद में चिकित्सा के रूप में आहार के विनियमन का बड़ा महत्व है। ऐसा इसलिए है कि इसमें मानव शरीर को भोजन के उत्पाद के रूप में समझा जाता है। एक व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसका स्वभाव उसके द्वारा लिए गए भोजन की गुणवत्ता से प्रभावित होता है। मानव शरीर में भोजन पहले कैल या रस में तब्दील हो जाता है और फिर आगे की प्रक्रियाओं से उसका रक्त, मांसपेशी, वसा, अस्थि, अस्थि-मज्जा, प्रजनन तत्वों और ओजस में रूपांतरण शामिल है। इस प्रकार, भोजन सभी चयापचय परिवर्तनों और जीवन की गतिविधियों के लिए बुनियादी है। भोजन में पोषक तत्वों की कमी या भोजन का अनुचित परिवर्तन विभिन्न किस्म की बीमारी को जन्म देता है।


दोष

दोषों के तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं वात, पित्त और कफ, जो एक साथ अपचयी और उपचय चयापचय को विनियमित और नियंत्रित करते हैं। इन तीन दोषों  का मुख्य कार्य है पूरे शरीर में पचे हुए खाद्य पदार्थों के प्रतिफल को ले जाना, जो शरीर के ऊतकों के निर्माण में मदद करता है। इन दोषों में कोई भी खराबी बीमारी का कारण बनती है।

उक्त तीनों दोषों को धातु भी कहा जाता है इसे धातु इसलिये कहा जाता है क्‍योंकि ये शरीर को धारण करते हैं। चूंकि त्रिदोष, धातु और मल को दूषित करते हैं, इसी कारण से इनको 'दोष' कहते हैं। आयुर्वेद में शरीर के निर्माण में दोष, धातु मल को प्रधान माना है और कहा गया है कि 'दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्'।

नाखून का मल आँख का मल यह भी हमारे शरीर के रोगों को दर्शता है।

जब विकृत होकर शरीर को मलिन करते है तब मल कहे जाते है।

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