Breaking News

चालाँकियाँ



सर्वप्रथम मैं स्वयं के ही विरोध में लिखता हूँ..

आत्म के शोध में लिखता हूँ....


हालांकि आज के इस कलयुगी दौर में हर इंसान के लिए चालांकि जीवन का जरूरी हिस्सा हो चुका है कम से कम इतनी चालांकि तो होनी ही चाहिए कि अपने हितों की सुरक्षा की जा सके।

परन्तु अपने हितों को सुरक्षित करने हेतु की जाने वाली चालांकि आज इतना आम व्यवहार हो चुका है की जो व्यक्ति चालांकि की क्षमता नहीं भी रखता वह भी इस व्यवहार को जीने का आदि होता जा रहा है ऐसे में अपनी समझ के अनुसार सतर्कता बरतने के बावजूद भी अपने हितों को सुरक्षित करने में असफल होते हैं तो कालांतर वह कुंठा के शिकार हो जाते हैं और उनमें नकारात्मक भावना घर कर लेती है। और वह निराशा में जीवन व्यतीत करने को बाध्य हो जाते हैं क्यों कि अति चातुर उनकी किसी भी उक्ति को निष्फल कर देता है कभी कभी ऐसे ही निराश व्यक्तियों के अपराधी बनने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।

यदि व्यक्ति किसी भी व्यवहार को निरंतर अपने जीवन का हिस्सा बना लेता है तो प्रकृति के सामान्य नियम के अनुसार वह निरंतरता के साथ अपने विकृत रूप तक अवश्य पहुंच जाता है  और उसे पता भी नहीं चलता कि कब वह व्यक्ति स्वयं के हितों की सुरक्षा करते करते दूसरों के हितों  के अतिक्रमण में लिप्त हो गया । 

अब जबकि चालांकि अपने विकृत स्वरूप में उसके व्यवहार का हिस्सा व आदत बन चुका होता है तो वह लोभ व लालच में पड़कर नीति व अनीति को भी नहीं समझ पाता उसकी मति मारी जाती है। 

और धीरे धीरे वह अपनी मानवीयता खो बैठता है और इस व्यवहार की जड़ता वक्त के साथ अपने क्रूरतम रूप में रूपांतरित होते हुए अपने सगे संबंधियों तक को न चाहते हुए भी उनके हितों को भी अतिक्रमित करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते इस प्रकार की निरंतर मानोदशा इतना व्यक्ति को अंदर ही अंदर इतना खोखला कर देती है कि वह नकारात्मकता के विचारों का मन मंथन करने लगता है व्यक्ति मनोवैज्ञानिक स्तर पर अनेकों मानसिक व्याधियों से पीड़ित करती है क्योंकि यदि इंसान की मनोदशा लगातार नकारात्मकता जी रही हो तो उसके मस्तिष्क में होने वाला रासायनिक परिवर्तन उस व्यक्ति के प्रतिकूल ही हो जाता है और वह हर व्यक्ति को स्वयं के विपरीत व विरोध में समझने लगता है।

सारतः यह कहा जाता है कि चालांकि को लगातार अपने व्यवहार का हिस्सा न बनने दीजिए ।

ध्यान इतना रहे कि किसी का अहित न होने पाए आंख, कान नाक, बुद्धि खोलकर जीएं चालांकि का जाल फैलाकर नहीं

जिस व्यवहार को आप स्वयं के लिए अनुचित मानते हैं तो आपकी भी यह ड्यूटी बनती है की आप भी किसी के साथ बुरा व्यवहार न करें ।

चालांकि बनने की जगह यदि हम बुद्धिमान बने तो बिना व्यवहार दूषण के भी हम अपना हित सुरक्षित कर सकते है।


चालांकी से कपट बढ़े

मन निर्छलता खोय


मैल जमे सो ना छुटै

केतनउ काशी धोय


सर्वप्रथम मैं स्वयं के ही विरोध में लिखता हूँ..

आत्म के शोध में लिखता हूँ....


----💐💐💐-----💐💐


बुद्धि जब स्वयं के हितों की 

सुरक्षा से ज्यादा दूसरे के अधिकारों (धन-दौलत, जमीन-जायदाद, हित-अहित, मान-सम्मान, ज्ञान-विज्ञान, पद-प्रतिष्ठा, स्थिति-स्थान, किसी के व्यक्तिगत के कुछ भी का ) अतिक्रमण करने लगे तो बुद्धि गोबर स्वरूप हो चुकी है। 

जो कालांतर रिश्तों के सिमटते हुए दायरों में अपने सबसे नज़दीकी रिश्तों के साथ भी गोबरीय व्यवहार में ही होने को बाध्य होगी क्योंकि यह अभ्यास की प्रक्रिया में आदत का हिस्सा बन चुकी होगी है।


अभी भी समय है बुद्धिमान रहिए चालांकि राक्षसीय प्रवृत्ति है।


इसका त्याग करिए। 

बुद्धि शुभ है, संरचनात्मक है, सृजनकर्ता है, सर्वजन हिताय व सुखाय है।


जबकि चालांकि (बुद्धि के शुभ क्षमता से दरकिनार) व्यक्तिगत हित का निकृष्टतम उपाय है।


#nirajchitravanshi

No comments