बिहार चुनाव 2025
"राजनीति के शिकारी= जाति×धर्म पर भारी"- प्रोफेसर (डॉ) अखिलेश्वर शुक्ला!
भारतीय राजनीति में राजनीतिक घराने जिस दाव-पेच का सहारा लेते हैं, वह अब धीरे धीरे आमजन के समझ में आने लगा है। बिहार वह ऐतिहासिक प्रदेश है - जहां चाणक्य, चन्द्रगुप्त, महात्मा बुद्ध से लेकर नालन्दा, तक्षशिला सहित गांधी के चम्पारण सत्याग्रह, जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन आदि को लेकर जाना जाता है।
बिहार विभाजन के पश्चात खनिज, उद्योग का बडा भाग झारखंड के हिस्से में चला गया। बिहार के पास खेती बारी के साथ साथ ऐसे राजनीति के धुरंधर घराने/ मजे हुए खिलाड़ी बचे रहे- जिसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, रोजगार के बजाय दल-कुर्सी , राजनीतिक व्यापार से ज्यादा लगाव/जुड़ाव रहा है। बिहार चुनाव में जातिगत एवं धार्मिक समीकरण राजनीति के धुरंधरों के सर माथे चढ़ कर बोल रहा है। भारतीय ब्यवस्था में जातिगत ब्यवस्था के पोषक सभी राजनीतिक दल एवं नेता हैं। यदि किसी जाति का विरोध/निंदा करना है तो उसका स्पष्ट कारण केवल राजनीतिक है। नेता ऐसा वातावरण तैयार करते हैं कि दल के दलदल में फंसे अंधभक्त लड़ने भिड़ने का कार्य आसानी से कर लेते हैं। भले ही इन्हें कटना-मरना क्यों न पड़े। जबकि राजनीतिक दलों द्वारा प्रत्याशी उसी जाति से उतारने एवं उसका उपयोग करने में कोई शर्म नहीं आती।
बिहार चुनाव में अगड़ा अर्थात सामान्य वर्ग 15.52%-पिछड़ा वर्ग-27.12%- से भी आगे बढ़कर अतिपिछड़ा वर्ग -36.1%- की राजनीति को लेकर घमासान मचा हुआ है। एक दल अतिपिछड़ा उपमुख्यमंत्री धोषित करता है तो सत्तासीन दल ने मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री दोनों को अतिपिछड़ा होने का दावा कर रहा है। कुल मिलाकर जाति-व्यवस्था को और भी मजबूती प्रदान करने की कवायद करने वाले जातिगत खाईं को और भी पुख्ता करते स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं। फिर भेदभाव रहित समाज निर्माण में इन राजनीतिक दलों की क्या भूमिका हो सकती है -आसानी से समक्षा जा सकता है।
बिहार में धर्म आधारित राजनीति में मुस्लिम आबादी 17.70% को साधने में लगे दलों की नियत- नियति भी साफ-साफ समझा जा सकता है। हिन्दू आबादी -81.99% से कुछ जातियों को अपने दल से जोड़ने की कवायद में ही किसी जाति के प्रति घृणा भाव पैदा कर ध्रुवीकरण करके सिंहासन प्राप्त करने की पुरजोर कोशिश की जाती है।
प्रोफेसर शुक्ला का कहना है कि -* "सामाजिक विखराव-दुराव की कीमत पर ही इन्हें सतासूख प्राप्त हो सकता है।" यही कारण है कि स्वयं सहित परिवारीजन, रिस्तेदारीजन तो राजनीतिक रोजगार की गारंटी प्राप्त कर लेते है। लेकिन शेष उनके विरादरी/जाति वाले लोग रोजगार, शिक्षा से दूर रहकर जीवन भर जिन्दाबाद -मूर्दाबाद के साथ साथ लड़ाई झगडे में ही अपना सबकुछ बर्बाद कर देते हैं।
डॉ शुक्ला के अनुसार -""बिहार से पलायन एक बड़ा मुद्दा है । जिसे चुनाव में तो जोर शोर से उठाई जा रही है। लेकिन चुनाव के बाद कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं समझता । पलायन की स्थिति यह है कि लगभग -57 लाख बाहर रहने वाले बिहारी में से 05 लाख केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की संख्या है। यह सिद्ध करता हैं कि -रोजगार के साथ साथ शिक्षा की भी बिहार में क्या स्थिति है। ""
प्रोफेसर अखिलेश्वर शुक्ला का यह कहना कि - ""राजनीति के शिकारी: जाति-धर्म पर भारी कैसे हैं? इसे आसानी से समझा जा सकता है। राजनीतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि सामाजिक सांस्कृतिक समरसता बरकरार रहे।""
प्रोफेसर शुक्ला का यह मानना है कि "शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार को महत्व तभी मिल पायेगा जब राजनीतिक भ्रष्टाचार रूपी भस्मासुर का अंत होगा।" आमजन/आममतदाता बना रहे यही राजनीतिक दलों की नियति बन गई है। शिक्षा -रोजगार प्राप्त युवा फिर नेताजी के पीछे पीछे दौडने का कार्य नहीं कर पायेंगे। ऐसे में लोकतंत्र बनाम राजतंत्र की ब्यवस्था पर गहन अध्ययन चिंतन/मनन/करने की आवश्यकता है ।
**जागो मतदाता: जागो बिहारी*: जय हिन्द जय बिहार!
प्रोफेसर (कैप्टन)डॉ अखिलेश्वर शुक्ला,
पूर्व प्राचार्य/ विभागाध्यक्ष -राजनीति विज्ञान-
राजा श्री कृष्ण दत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय -जौनपुर (उत्तर प्रदेश)-


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