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इंसान स्वयं सशंकित है

 सत्य किसी भी युग में विवादित ही रहा, सत्य का विचारक चाहे पारम्परिकता के प्रभाव में सत्य की बात कर रहा हो या स्वयं के तर्क के आधार पर बात कर रहा हो, वस्तुतः ईश्वर रचित समग्र सत्य की हूबहू चर्चा करने पर इंसान स्वयं सशंकित है, ईश्वर द्वारा रचित कुछ को मानवीय समाज ने स्वयं ही घृणित मान लिया है जबकि विचार व प्राप्ति के स्थल पर वह कुंठा के रूप में अतृप्त लालसा स्वरूप नकारात्मक ऊर्जाओं के रूप में भीतर निरन्तर भरा पड़ा है।

सभ्यता के नजरिये से खामोशी ठीक है परन्तु परम सत्य को परम घृणित नजरिए से, भीतर ही भीतर लालसा के नजरिए से, देखना ही सर्वत्र, असत्य को ही जीने का संस्कार बन चुका है, और मन असत्य को ही जीवन मान बैठता है और असत्य को ही सुख का साधन मानने लगा है।

सभ्यता के दायरे में हर सत्य को स्वीकार करना और हर विषय पर खुलकर बातें करना ही सत्य का महत्व समझा सकता है। इंसान के जीवन में आने की प्रक्रिया सभ्यता के दायरे जो भी नैसर्गिक है सही है। किसी संदर्भित पर सभ्यता का पर्दा डालना तो विचारवान होने का सबूत है। वहीं जब खामोश ही रह जाएंगे तो यह तो स्वयं के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह हुआ। 

कुछ भी यदि अनुचित ही है तो ईश्वर उसे बनाता ही क्यों ईश्वर की ही संरचना का कुछ भी बुरा कैसे हो सकता है। 

पैदा होने से लेकर मृत्यु होने तक तीनों पहर भूख लगना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, सांस लेना, देखना, सुनना, बोलना, सोना, जागना, सूंघना आदि सबकुछ नैसर्गिक ईश्वर रचित से परहेज नहीं फिर सेक्स के अवस्था को लब्ध स्थिति में सेक्स से इतनी घृणा क्यों वो भी घृणा नहीं चरमसुख की स्थिति में पहुचने की प्रक्रिया है जिसे ईश्वर ने ही रच है तो निश्चित ही इसी उद्देश्य से रच है जो मानव जीवन को खुशियां देगा, कहते हैं कि परमात्मा की प्राप्ति के सुख का अर्थ निरन्तर संभोगरत होने से प्राप्त चरमसुख की अवस्था में रहने जैसा यदि ऐसा ही है तो चरमसुख को प्राप्त करना ही ईश्वर को प्राप्त करना हुआ।


अनेकों मनोवैज्ञानिक शोधों में यह भी प्रमाणित मन है कि पुरुष 90 वर्ष या उससे ऊपर भी संभोग की क्षमता रखता है अर्थात यह किसी व्यक्ति की स्वयं के लिए विशेष व्यवस्था तो है नहीं और सृष्टि के रचयिता ने इसे मानवीय व्यवहार के विपरीत ही समझा होता तक भगवान इसे बनाता ही क्यों क्या अब इंसान भी भगवान के ऊपर हो जाएगा। दाढ़ी और बाल काटने को भगवान ने नहीं कहा ये मानवीय व्यवस्थाएं है कि हमने काटना शुरू कर दिया तो दाढ़ी या बाल का काटा जाना विचित्रता हो सकती है मानवीय व्यवस्था हो सकती है, इसका बढ़ना तो नैसर्गिक होना हुआ चलो सभ्यता के अनुसरण काटने ही लगे तो ठीक है अब सभ्य होकर भूखे भी मरने की सोच रखा है क्या? पेट की भूख मिटाना तो सही है तो शरीर की भूख का क्या वो कैसे गलत हो गया। पर्दे के पीछे सब वही अच्छा लगेगा जो प्रबंधित है कोई माने या ना माने

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