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करनी" सही ना भी हो, तो भी



 "करनी" सही ना भी हो, तो भी 

"कथनी" शिक्षापरक तो होनी ही चाहिए।

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स्वयं का "कृत्य" सही हो न हो 

पर "कथन" अवश्य शिक्षापरक ही होना चाहिए, क्योंकि इंसान स्वयं किसी बुरी लत में हो और उसीके वरण का प्रचार करे तो सर्वदा अनुचित होगा।


"कथनी" और "करनी" में समानता होनी ही चाहिये, 

यह बात सैद्धान्तिक रूप से सत्य है। 

सदियों से मान्य भी है।

परन्तु "करनी" सही ना भी हो, तो भी 

"कथनी" शिक्षाप्रद तो होनी ही चाहिए।


और यह बात जांच का विषय है, 

कभी भी जांचा सकता है कि, 

कोई चोर भी चोरी जैसे कृत्य का, 

महिमा मंडन तो नहीं ही करेगा।


हम अपने जीवन को, 

खुशहाल बना पाएं या न बना पाएं पर,

दूसरों का उत्साहवर्धन अवश्य कर सकते हैं।


यह कृत्य कुछ ऐसा ही होगा कि, 


हम स्वयं शराब पीते हों,

पर अपने पुत्र को कदापि नहीं पिलाना चाहते।


किसी का उत्साहवर्धन करना

प्रकृति द्वारा प्रदत्त हमारे व्यवहार की 

नि:शुल्क सेवा हो सकती है।


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