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भीतर का सत्य

या तो सांसारिक नियम गलत या ईश्वर के सर्वोत्तम कृति "मनुष्य" के भीतर उठने वाली भावनाएं गलत हैं।

क्यों कि मनुष्य के रूप में भीतर उठने वाली भावनाओं का "नग्न सत्य" 

यदि गलत है तो, "सम्पूर्ण सत्य" स्वरूप में स्वयं को ही पसंद कर पाना कठिन हो जाएगा। 

सामाजिक नियम के सत्य और मानव के भीतर के "मौलिक सत्य" का सामंजस्य ही विरोधाभाषी है। 


अर्थात भीतरी सत्य के बिना किसी को सामाजिक स्तर पर जितना भी सत्य अथवा आदर्श माना जाय। 


भीतरी सत्य की तो अलग ही स्थिति है।


दृश्य सत्य के अलावा भीतरी सत्य, जो हर व्यक्ति को उसके स्वयं के सत्य से परिचय कराती है। 


परन्तु तथाकथित साहसिक मनुष्य, स्वयं के, भीतरी सत्य के साथ, परिवार, समाज, यार दोस्त या अन्य किसी भी रिश्ते को सत्य नहीं हो सकता।

ईश्वर द्वारा निर्मित मानव संरचना की अनेकों ऐसी आवश्यकताएं है जिसे पारिवारिक, सामाजिक मान्यताएं गलत मानती हैं परन्तु स्वयं के भीतर उठने वाले गुबार को गलत मानकर भी नियंत्रित कर पाना यदि आसान होता तो तमाम ऐसे मामले सामने न आते जिसे गलत कहा जाता है।

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