वर्तमान जीवन में "न्यूनतम दिव्यता"
दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मानव जीवन की विशिष्टता और दिव्यता के बारे में एक तार्किक लेख, कि यदि मानव ईश्वर की सर्वोत्तम संरचना है तो निःसंदेह ईश्वर ने सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ गुणकारी तत्वों को समामेलित किया तभी दिव्य सामर्थ्यवान मानव की रचना संभव हुई।
जैसे तराशा गया हीरा स्वयं के आरंभिक अवस्था मे निश्चिततः हीरे का पत्थर हुए बिना हीरा नही हो सकता, उसी प्रकार उसी प्रकार मानवीय दिव्यता से परिपूर्ण तत्वों के बिना मानव जीवन का प्रादुर्भा नही हो सकता।
मानव जीवन प्राप्त करने के लिए कितनी न्यूनतम दिव्यता का होना आवश्यक है।
यह बातें आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों पर आधारित है तथा यह मानव जीवन के उद्देश्य और महत्व को समझने में मदद करता है। यह तर्क हमें अपने जीवन में सकारात्मक और नैतिक मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करेगा।
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कहते हैं की मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है, तो निःसंदेश मनुष्य रचना प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ तत्वों के समामेलन से ही संभव हुई है।
मनुष्य गर्भ प्राप्त होना,
"दिव्य कर्मो" का परिणाम है।
अर्थात समग्र मानव जाति
में वह "न्यूनतम दिव्यता" तो है ही
जिससे वह मानव शरीर प्राप्त कर सका।
सभी मनुष्यों को स्वयं पे गर्व होना चाहिए कि मनुष्य जीवन प्राप्त करने की उनकी स्वयं की विशिष्टता को ही ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और मनुष्य का जन्म हुआ।
अब यहाँ एक बात तो स्वतः स्थापित हो रही है कि यदि पुनः मानव शरीर प्राप्त करना है तो मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के लिए, वर्तमान जीवन में "न्यूनतम दिव्यता" को बनाये रखना आवश्यक होगा।
अब प्रश्न है कि उक्त दिव्यता का माप दंड क्या है?
जिससे पुनः मनुष्य जीवन प्राप्त हो सके, संदर्भित के विश्लेषणात्मक चिंतन का निष्कर्ष है, कि मनुष्य शरीर पुनः प्राप्त करने की न्यूनतम दिव्यता, का कोई निर्धारित माप दंड तो नहीं है,अपितु यह कर्मो का एक जटिल व विस्तृत खाता है जिसकी गणना मनुष्य के बस की बात नही, यह तो प्रकृति के परिधि का विषय है।
परन्तु हमारे वेद, पुराण, निषद, उपनिषद, ग्रंथों, शास्त्रों व महात्माओं के वक्तव्यों के आधार पर स्पष्तः कहा जाता है कि "सबकी भलाई" व "सम्पूर्ण सत्य" का निरंतर संकल्प ही, एक मात्र रास्ता है, उक्त दिव्यता को प्राप्त करने हेतु, निरंतर बस शुभ बांटते जाने के क्रम में, न चाहते हुए भी गलती हो जाने के सही होने तक के सफर में, कब मानव जीवन पुनः प्राप्त करने की योग्यता पूर्ण होगी? यह तो प्रकृति ही निर्धारित करेगी। मनुष्य को हर हाल में सत् मार्ग पर होना ही होगा।
मानवीय वैज्ञानिक गणित इतनी पुष्ट नहीं हुई कि अमुक "दिव्यता" की सही सही गणना कर सके।
सत् मार्गी रहकर ही सभी के लिए अच्छा ही सकता है हमने स्वयं की आवश्यकता से हजारों गुना बना भी लिया तो क्या।
हमारी महत्वाकांक्षाओं पर यदि हम गौर करें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त सभी सुविधाओं का परिष्कृत मानवीय संस्करण हमने स्वयं की लालसा व भोग विलासिता हेतु ही बनाया जो दूरस्थ हमारे स्वयं के लिए बुनियादी तौर पर दुखदायी ही साबित हो रहा है। आकांक्षा या अभिलाषा की कोई अंतिम सीमा नहीं है अतः उचित होगा कि हमारा हर आविष्कार प्रकृति के अनुकूल हो, जैसे कि हम और हमारी पीढ़ियों का जीवन सुखमय हो।
अनन्त शुभकामनाएं🌷🙏
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ऐसे लेख लिखने में मुझे आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है, मन शांत होता है।
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