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धरा धधकती अंतस तक व्याकुल विह्वल सब सूख रहा

 बढ़ रहा मरुस्थल धरती पर

आँचल हरियाली सोख रहा
फटी विवाई धरती पर
पानी वानी सब छूट रहा
धरा धधकती अंतस तक
व्याकुल विह्वल सब सूख रहा
एक दूजे की पूरक प्रकृति
बेतरतीब अनर्गल टूट रहा
दूषित हैं हवाएं, बेचैन नदी,
झरनों का रुकना, कलरव थमना,
चहु ओर चमन हो ठूँठ रहा।
सूरज की बढ़ती तपिश निरंतर
घातक घट घट सब हो सून रहा।
बहका बहका, मानव विह्वल मन
ना जाने क्या खोज रहा

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