आस्था के ऊपर किसी भी तर्क का, कोई स्थान नहीं है..
सनातन, वेद, पुराण, धर्म, शास्त्र, ग्रंथ, निषद, उपनिषद सब हमें अनुशासित जीना सिखाते हैं यह हमारी आस्था का विषय है और आस्था के ऊपर किसी भी तर्क का, कोई स्थान नहीं हो सकता, हां तर्क की सार्थकता हमारी धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ न किये जाने तक मान्य हो सकती है, तर्क सिर्फ वहीं तक स्वीकार्य हो सकता है जहां तक वह धर्म की स्थापना के हित में है, इस सृष्टि का कुछ भी बिना भगवान के संभव ही नहीं।
श्रीराम व श्रीकृष्ण के पश्चात जो भी देह धारी महान विचारक या चिंतक रहे सभी की अंतिम गति तक वो एक तार्किक विचारक से ज्यादा कुछ भी न हुए, अनुयायियों ने भले कोई भी स्थान दे दिया हो। उनके तर्क सामाजिक व्यवहार में सुरक्षित व स्वयं के हितों की सुरक्षा के सूत्र रूप में सार्थक हो सकते हैं कथा, कहानी के स्तर पर थोड़ा अलग होने के कारण रुचिकर भी लग सकते हैं और इसकी कुछ प्रासंगिकता विपरीत परिस्थियों में सकारात्मक रहने के लिए सहायक भले ही हो सकती हैं वह भी हर जगह नहीं, ये लोग अंततः मानव ही रहे इस बात का पक्का सबूत यह है कि किसी भी संदर्भ में इनके किसी भी चमत्कारिक शक्ति का कोई प्रमाण नहीं मिलता जहाँ इन्होंने पाषाण अहिल्या को पुनः मानवीय जीवन देने जैसा कोई कार्य किया हो या कृष्ण की भांति स्वयं के मुख में ब्रम्हाण्ड का दर्शन करा दिया हो, ईश्वर का अर्थ ही यह है कि मानवीय शक्ति उसका सामना नहीं कर सकती, इंसान अपने बौद्धिक ऊंचाई से किसी को अपने तर्क में उलझा भले सकता है परंतु कोई ईश्वरीय चमत्कार नहीं कर सकता।
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