प्रकृति के आयामों की स्वयं में तीव्रता पर नियंत्रण नामुमकिन तो नहीं है
जो कुछ भी किसी भी लिहाज से सही नहीं है उसे छोड़े जाने का चलन चलाया ही नहीं जा सकता। क्योंकि की प्रकृति के आयामों की स्वयं में तीव्रता पर नियंत्रण नामुमकिन तो नहीं है
पर नामुमकिन की सीमा तक सख्त अवश्य है जो निश्चितः ही किसी आम आदमी के बस की बात नहीं है इसीलिए प्रकृति की मौलिक आवश्यकता के सिद्धंत के समक्ष मजबूर व्यक्ति ने हर वो कार्य जो मानवीय आधार पर सही नहीं थे उसे नियमों के दायरे में या छुपकर जी लेने को ही जीवन में लिया।
प्रकृति की व्यवस्था को यदि
हूबहू प्रकृति के अनुसार ही
जिया जाता तो किसी भी प्रकार के असमानता वाली व्यवस्था का जन्म ही न होता और हर ओर अगर हर स्तर पर समानता होती तो कुछ के भी गलत होने का कोई चांस ही न रह जाता।
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