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सच है!

यदि सही रहकर ही 

सारे इच्छाओं की पूर्ति होती रहे 

तो गलत होने का औचित्य शून्य हो जाता है।

परन्तु ऐसा तभी संभव है।

जबकि प्राप्तियों का एक न्यूनतम समानन्तर दायरा सुनिश्चित हो। उस दायरे के ऊपर सामर्थ्य का विस्तार हो।

अर्थात हर व्यक्ति को सम्मानित जीवन जीने हेतु आदर्श सिस्टम होना आवश्यक है और यह असंभव भी नहीं , जरूरत है सरकारों को इस दिशा में सोचने की।

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अनावश्यक आवश्यकताओं की 

असीमितता ही लालच को जन्म देती है।

लालच ही वह तृष्णा है जिससे  

नैतिकता व अनैतिकता का अंतर विस्मृत हो जाता है।

जिसके बाद कि स्थिति ये जगत है।

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स्वयं के भीतर ध्यानस्थ होकर 

स्वयं के शरीर से अलग 

स्वयं के अस्तित्व पर ध्यान केंद्रण की सिद्धि प्राप्त हो जाय तो

शरीर में प्राण ऊर्जा के होते हुए भी 

शरीर पर किसी भी प्रहार का 

कोई असर नहीं होगा।

जैसे मृत्यु के बाद 

शरीर पर चोट पहुंचाई जाय 

तो शरीर पर कोई फर्क नहीं पड़ता।


कई महात्मा ने इस स्थिति को प्राप्त कर 

इस विद्या के सत्य को साबित भी किया है।


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कब आपकी किस बात को

घमंड मानकर 

बहुमत का घमंड

आपको बलि का बकरा बना देगा 

कुछ पता नहीं।


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किसी देश की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा सामग्री ही देश का भविष्य निर्धारित कर सकती है जिस देश की शिक्षा का विषय ही दिशा भ्रमित हो वह देश के विकास का केंद्रीय सहयोगी कैसे हो सकता है।

पढ़े लिखे होने से ज्यादा जरूरी है क्या पढ़ा जाना चाहिए।

इसका निर्धारण जबकि बहोत आसान था लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था सालों साल से घोड़े की आंखों में बंधी पट्टी की तरह सीधे दिखाये गए मार्ग पर बस चलती ही जा रही है। 

शिक्षा व्यवस्थाओं में आये दिन परिवर्तन भी किए जा रहे हैं पर ये परिवर्तन निरर्थक दूरगामी व सारगर्भित नहीं प्रतीत होते। सारे परिवर्तन बेहद सतही प्रकृति के हैं।

उपयुक्त शिक्षा सामग्री के निर्धारण हेतु देश के विकास की केंद्रीय आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करना होगा और जनरेशन्स को वही पढ़ाये जाने की आवश्यकता है जिससे देश के युवा व राष्ट्र अपने आप मे केंद्रीय तल पर समृद्ध हो सके जिसके लिए बुनियादी आदर्श व नैतिक व्यवहार के  निरंतर शिक्षा के साथ उद्यमी शिक्षा, जिसके लिए सरकार कार्य भी कर रहीं हैं पर जिस व्यापक स्तर पर इसके इस्तेमाल को आसान किया जाना चाहिए अभी उतना आसान नहीं हो पाया है अभी भी पारदर्शीता की आवश्यकता है कहने, सुनने व सुनाए जाने के अनुसार जमीनी सत्य नहीं दिखाई पड़ता जिसे सुव्यवस्थित व सरल बनाना ही होगा और वैश्विक व्यापार को सरलीकृत करके देश के युवाओं को जागरूक कर आगे बढ़ने का आधारभूत आसान रास्ता दिखाने की आवश्यकता है देश के युवाओं को योग्य व समर्थ बनाए जाने की आवश्यकता है। योजनाओं के जमीनी सत्य में सुधार की आवश्यकता है एक कारगर जमीनी इंतजाम इतना सहज होना चाहिए जहां एक बांस से बनी हुई डलिया भी बेच देने का रास्ता नजर आता हो। जिस देश का आधारभूत ढांचा, एक अशिक्षित को भी स्वतंत्र व ईमानदार व्यवस्था दे सके, अशिक्षित के लिए भी अपना सामान उसके उचित कीमत बेचने का स्थान प्राप्त हो सके। 


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[6/12, 10:21] Niraj: 

यदि किसी व्यक्ति द्वारा पढ़ाया हुआ 

एक बच्चा ही बहोत अच्छा है तो यहां

बच्चे के स्वयं में विशेष होने की संभावना ज्यादा है।

परन्तु उसी व्यक्ति का पढ़ाया हुआ वो बच्चा भी पढ़ाई में रुचि दिखाने लगे, जो पढ़ना ही नहीं चाहता, तो समझिए कि शिक्षक ने पढ़ाई को किसी मन पसंद खेल जैसा आसान बना दिया है। इस दुनिया का कोई भी विषय रुचिकर हो सकता है यदि वह खेलने जैसा आसान हो जाय।

[6/12, 10:32] Niraj: किसी देश की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा सामग्री ही देश का भविष्य निर्धारित कर सकती है जिस देश की शिक्षा का विषय ही दिशा भ्रमित हो वह देश के विकास का केंद्रीय सहयोगी कैसे हो सकता है।

पढ़े लिखे होने से ज्यादा जरूरी है क्या पढ़ा जा चाहिए।

इसका निर्धारण जबकि बहोत आसान था लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था सालों साल से घोड़े की आंखों में बंधी पट्टी की तरह सीधे दिखये गए मार्ग पर ही चलने को मजबूर है। 

शिक्षा व्यवस्थाओं में आये दिन परिवर्तन किए जा रहे हैं पर ये परिवर्तन निरर्थक दूरगामी व सारगर्भित नहीं प्रतीत होते।

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स्वयं के लिए जीना 

जिंदगी की जन्मतः 

प्राकृतिक प्राथमिकता है।


पर यदि मैं अन्य के लिए 

संवेदनशील नहीं हूं तो 

मैं मनुष्य होकर भी 

मनुष्य नहीं हूं।

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हर बात की एक अच्छाई और बुराई होती है 

आलसी होना एक बुराई जरूर है परन्तु

ध्यान देने वाली बात यह है कि

एक आलसी व्यक्ति के काम करने का तरीका 

एकदम नायाब होता है।


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मैं, मेरा और पैसा ही जिंदगी है

बाकी सब दिखावा है।


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किसी देश की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा सामग्री ही देश का भविष्य निर्धारित कर सकती है जिस देश की शिक्षा का विषय ही दिशा भ्रमित हो वह देश के विकास का केंद्रीय सहयोगी कैसे हो सकता है।

पढ़े लिखे होने से ज्यादा जरूरी है क्या पढ़ा जा चाहिए।

इसका निर्धारण जबकि बहोत आसान था लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था सालों साल से घोड़े की आंखों में बंधी पट्टी की तरह सीधे दिखये गए मार्ग पर ही चलने को मजबूर है। 

शिक्षा व्यवस्थाओं में आये दिन परिवर्तन किए जा रहे हैं पर ये परिवर्तन निरर्थक दूरगामी व सारगर्भित नहीं प्रतीत होते।


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मैं और मेरा की भावनात्मक तीव्रता इतनी गहरी है जो मैं और मेरा के अतिरिक्त किसी अन्य की उपस्थिति को ही नगण्य कर देता है। अपने किसी सगे तक को। 

हम दो हमारे दो या 

हम दो हमारे एक और 

कही कहीं, हम दो हमारा कोई नहीं, 

तक सीमित दुनियां को मेरी दुनियां मान लेने का भ्रम लिए 

घूम रहा है। 

भ्रम कहे जाने का सत्य यह है 

कि एक पिता जो अपने पुत्र से बहोत प्यार करता था अचानक किसी टीवी शो जिसका नाम "सच का सामना" था उसमें इस पिता की पत्नी ने एक सत्य का खुलासा किया की उसके पति जिस बच्चे को अपना बेटा मानते हैं वास्तव में वह उनका बेटा है ही नहीं पिता के लिए यह एक अविश्सनीय घटना थी और उसी क्षण उसने अपने बेटे से दूरी बना लिया जो बस इतने विश्वास में उसे बहोत ज्यादा प्यार करता था वह अचानक से खत्म हो कैसे सकता है बस इतना जान लेने मात्र से की वह मेरा नहीं है।

यह मेरा है कि सख्तता का भीतरी तल पर कुछ भी नहीं है उक्त घटनाक्रम पिता ने बाहरी तौर पर एक जांच को इतना घरेबसे सत्य मां लिया कि जिसे वह अपना मानकर बहोत प्यार करता था अचानक से सब खत्म हो गया अर्थात भावनात्मता की जड़ें सिर्फ सतही जानकारी के सही होने के भ्रम की स्थिति में भी किसी ऐसे से भी जुड़ी रह सकती हैं जो वास्तव में उसका सत्य है ही नहीं।

इन्सान भी सत्य से परे मैं और मेरा के भ्रम में नाजाने क्या क्या करता जा रहा है। क्योंकि की शो का फॉरमेट ही ऐसा था कि सच बोलना ही था lie डिटेक्टर मशीन उस शो का हिस्सा था इसलिए महिला को मजबूरन सच स्वीकारना पड़ा। अब भी पिता उसे अपना बेटा मानता रह कर प्यार करता ही रहता।


कहने का अर्थ इतना कोई किसी का नहीं और सभी एक ही हैं यदि मानव जन्म के प्रारंभिक अवस्था मे जाया जाए तो इस धरती पर समग्र मानव जाति एक ही जोड़े से उद्भूत हैं अर्थात सब एक ही हैं इसीलिए बस एक छोटी सी जानकारी बस हमारे जेहन में हो कि यह मेरा है तो इंसान भावना के अधिकतम गहराई तक प्यार या नफरत दोनों कर सकता है।

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