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मनोवैज्ञानिक सत्य "यथार्थ "

 मनोवैज्ञानिक सत्य "यथार्थ "

किसी व्यक्ति को यदि बुरा कहा जा रहा हो और वह व्यक्ति बुरा ही हो, इस बात से अलग, एक बात और भी सत्य से भी ज्यादा सत्य हो सकती है, कि उसको समाज के किसी बेहद सतही विचारधारा के तहत, बेवजह दोषी प्रोजेक्ट किया जा रहा हो, हर व्यक्ति के जीवन की स्थितियां परिस्थियां व उसका व्यक्तिगत व्यवहार ही एकांत प्रिय हो तो सामाजिक सिरकत की अपेक्षाओं पर कैसे खरा उतर सकता है, अब उसके सामाजिक न होने को उसकी बुराई की तरह प्रोजेक्ट करना उसके अधिकारों का हनन होने के साथ ही उससे अतिरेकीय अपेक्षा ही तो हुई। बुद्धिजीवियों को इस स्तर तक कि समझ तो होनी ही चाहिये हाँ चिन्हित व्यक्ति यदि मानवता के विपरीत किसी गतिविधि में शामिल हो तो निःसंदेह ऐसे व्यक्ति का विरोध होना ही चाहिए।
बेहतर होगा कि किसी भी व्यक्ति बारे में स्वयं की ही ईमानदार अवधारणा, स्वयं के अनुभव के आधार माना जाय, इसके अन्यथा, कोई निजी स्वार्थ हेतु भी किसी की छवि को खराब कर रहा हो, इस बात की बहोत ही गहरी संभावना होती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि गलत दिखाई जा रही हर चीज गलत ही हो कोई जरूरी नहीं, गलत दिखाया जाना निजी स्वार्थ व ईर्ष्या भी हो सकता है, अतः बेहतर होगा कि दिखावे पर ना जाये अपनी अक्ल लगाएं।
#nirajchitravanshi

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