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एक दूसरे पूरक संयोग में नहीं होंगे

 झोल उस व्यवस्था का है जिसे हम सभ्यता के प्रारंभ से ही बिना किसी दिशा बदलाव के विकास की धुन में बस भागते भागते यहां तक आ पहुंचे।

वक्त आ चुका है कि प्रकृति के अनुकूल ही विकास की दिशा में कदम बढ़ाया जाय।
इस पूरी पृथ्वी पर बेमौसम बारिश‚ बेतरतीब गर्मी‚ बेतरतीब बाढ़‚ प्राकृतिक आपदाएं‚ अभी ताजा खबरों के अनुसार स्वीटजरलैण्ड में ग्लेशियर्स का स्खलन एक सवाल को जन्म देता है कि.....
क्या अब तक का हासिल सब हमारे जीवन के लिए हर लिहाज से सुरक्षित है?
सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि अब तक हमने जो हासिल किया है वास्तव में हमारे जीवन के लिए अनुकूल है या नहीं‚ तब जाकर यह तय किया जा सकेगा‚ कि हम इसी दिशा में आगे बढ़ते रहें या किसी बदलाव की आवश्यकता है। वास्तव में अफसोस कि बात यह है कि अब तक हमने जो भी हासिल किया है वह सब प्रकृति के प्रतिकूल व स्वयं के भीतर ईश्वरीय तत्व की उपेक्षा में प्राप्त किया है।
सारी प्राप्तियाँ भौतिकता व भाेग वृत्ति से प्रेरित हैं व प्रकृति से सामन्जस्य उपेक्षित है साथ ही मनुष्य अपने दैहिक भोग विलासी आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं के भीतर से किसी भी प्रकार के सामंजस्य में नहीं हैं वह बस बाहरी सबकुछ इकट्ठा कर लेने की जुगत में है।
भौतिक अपेक्षाओं के इकट्ठा होते ही "यह मेरा है" का एक भ्रम जन्म लेता है।
जो हमें दूसरी ओर देखने ही नहीं देती।
वास्तव में यह दुनियां स्वयं के आरम्भिक अवस्था में प्रकृति लब्ध सुंदरता से पूर्ण थी जिसे हमारे जिज्ञासु पिपासु स्वाभाव ने प्रकृति को पूरा बाजारीकृत कर दिया।
तकलीफें यहीं से शुरू होती हैं
जहाँ से सब इकट्ठा कर लेने की देखा देखी दौड़ शुरू होती है और महसूस होना शुरू होगा कि
'ये मेरा है"
जबकि
"यहां सबकुछ प्रकृति का है"
न तेरा है ना मेरा है,
मैं भी प्रकृति की देन हूँ,
यहां कुछ भी मेरे द्वारा नहीं,
अपितु प्रकृति के आवश्यक संयोग से है।
जैसे एक आम का पेड़, बस प्रकृति के संयोग में है, और इस आम के पेड़ को प्रकृति से क्या चाहिए, ये अपनी बुनियादी संरचना के दम पर सब पा लेता है, परन्तु यह प्रकृति से बस उतना ही प्राप्त करता है जितने प्राप्य की व्यवस्था प्रकृति ने कि है आम के पेड का स्वयं का कोई योग नहीं है‚ वह हर हाल में प्रकृति के अनुकूल है‚ साथ ही कुछ पा लेने के सयोग में, प्रकृति पर निर्भर कुछ को आहार के रूप में फल देता है, आक्सीजन देता है, छाया इत्यादि देता है।
वास्तव में मानव भी प्राकृतिक तत्वों के संयोग से ही निर्मित हैं।
मनुष्य की एक विशेषता उसकी बुद्धि है, इस दुनियां में इसी बुद्धि जनित विचार का खेल "यह मेरा है" चल रहा है, जो ऊर्जाओं के संयोग से मनमानी सही गलत की खिचड़ी पका रहा है।
जबकि बुद्धिजीवीयो के आलावा इस सृष्टि का समस्त‚
प्रकृति से हर हाल में सामंजस्य निभा रहा है।
वहीं यदि मनुष्य भी
अन्य प्राकृतिक अस्तित्वों की भांति
निर्विकार स्वयं के संरक्षा के अतिरिक्त‚
समझे कि
मैं प्रकृति की देन हूँ और प्रकृति से प्राप्त करने के एवज में प्रकृति को कुछ सकारात्मक दे देने के उद्देश्य से ही, हमें प्रकृति का हिस्सा बनने का अवसर प्राप्त हुआ है, जैसे कि प्रकृति स्वयं के संतुलन में सहयोग प्राप्त कर सके।
प्रकृति द्वारा मनुष्य को पैदा करने का अनुकूल पुरस्कार तभी प्राप्त होगा।
हे मनुष्य! तुम प्रकृति हो,
प्रकृति सा तुम भी व्यवहार करो।
दिया जन्म जिसने तुमको,
उसका तुम आधार बनों।
वास्तव में मानव समाज निर्माण के आरंभिक काल से ही एक दिशाहीन अदूरदर्शी नियमों के जंजाल को जीने को बाध्य रहा है, जो व्यवस्था अग्रजों द्वारा दिखाया जाता रहा है, हम उसी पर पीछे पीछे चले आ रहे हैं, और लगातार चलते रहने के योग में भोग विलासिता के पीछे वही के वहीं रह जा रहे हैं, इस पूरी दुनियां में बुनियादी स्तर पर लगभग एक ही प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चलन में है।
जिसमें बदलाव नहीं हुआ तो पूरी दुनियां अशांति व बेचैनियों के पीछे ʺमेरा है ये मेरा है के अंधकार में डूबती जाएगी।
पूरी दुनियां को एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है
जो सम्पूर्ण मानव समाज को
समानता का कागजी नहीं अपितु जमीनी अधिकार दे सके।
जहां व्यवस्था ही स्वयं के बुनियादी स्तर पर
समग्र मानव जाति की हर प्रकार से सुरक्षा सुनिश्चित कर सके।
इस ब्रम्हाण्ड की मूल प्रकृति
सबकुछ के परस्पर सहयोग के सत्य योग अर्थात सहयोग से संचालित है, जिसकी स्वतः प्रक्रिया में इस सृष्टि का जर्रा जर्रा एक दूसरे के पूरक व्यवहार में आगे को बढ़ता रहा है। परन्तु कभी कभी की प्राकृतिक आपदाएं प्रकृति की इस स्वतः पूरक प्रक्रिया पर सवालिया निशान लेकर खड़े होते हैं जिसके लिए जिम्मेदारी निःसंदेह हमारी ही है।
जबतक पूरी दुनियां के मानव जाति
"ये मेरा है" कि जिद्द से परे एक दूसरे पूरक संयोग में नहीं होंगे, इस सृष्टि में कहीं भी अमन, चैन व शांति की स्थापना नहीं हो सकती।
सृष्टि के केंद्रीय प्राकृतिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार की विभिन्नता नहीं है, हवा, पानी, मिट्टी, आक्सीजन, रोशनी इत्यादि समस्त को प्रकृति ने, बिना किसी भेद भाव के, अमीर गरीब सबको समान रूप से सुलभ किया है, हमारे सामाजिक व्यवस्था में भी सार्वभौमिक लाभ की अवधरणा ही होनी चाहिए।
तभी एक सम्पन्न बुद्धिजीवी को जन्म देने की ईश्वरीय योजना सफल होगी।
ईश्वर को भी अपनी सर्वोच्च कृति मनुष्य पर गुमान होगा।
अनंत शुभकामनाएं

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