आपदा न्यूनीकरण प्रोग्राम चलाये जा रहे हैं फिर भी
आज विकास के इस मकाम पर पहुँचे चुके
मनुष्य को असहाय किडे़ मकोड़े की तरह बेड, टेबल, तख्तों के नीचे सर छुपाते देखा होगा, खुले आसमानों के नीचे भागते देखा होगा, बड़ी बड़ी गाड़ियों को खिलौनों की तरह पानी में बहते देखा होगा।









ये वो प्राकृतिक आपदाएं हैं जिसके समक्ष इंसान किंकर्तव्यविमूढ़ बौना सा बेबश दिखाई पड़ता है।
हालांकि आपदा न्यूनीकरण प्रोग्राम चलाये जा रहे हैं फिर भी इसकी गंभीरता के मद्देनजर सख्त व कारगर कदम उठाये जाने चाहिए।
मानव जीवन का उद्देश्य इतना सतही नहीं हो सकता कि वह जन्म ले कमाये खाए और मर जाए इंसानों को ब्रम्हाण्डिय शक्तियों के समानान्तर बुद्धि यू हीं प्राप्त नहीं हुई हैं उसका उद्देश्य निश्चिततः कुछ अलग ही है परमपिता का कोई भी सरोकार इतना सामान्य नहीं हो सकता, आवश्यकता है कि इंसान स्वंय के जीवन की सार्थकता वर्तमान जीवन शैली से ज्यादा समझ में पाए स्वयं के मानव होने का गौरव जी पाए।
इंसान इतने आश्चर्यजनक निर्माण का सामर्थ्य है कि वह सही दिशा में चाह ले तो क्या नहीं कर सकता, विश्व के समग्र वैज्ञानिकों को एकमत होकर समय के मांग को ध्यान में रखना होगा। स्वयं के सृजन की दिशा प्रकृति के अनुकूलता में मोड़नी होगी।
प्राकृतिक आपदाओं के कारणों पर शोध करना होगा। कारण समझ मे आएगा तो निवारण भी समझ में आएगा ही, ये अलग बात है कि यदि कुछ सार्थक कदम न उठाया गया तो इंसानों को कीड़े मकोड़ों की तरह यूँ तख्तों के नीचे भागना ही होगा। समय है सचेत होने का।
यह संदेश किसी एक व्यक्ति या किसी शहर किसी प्रान्त या किसी देश ही नहीं बल्कि समूचे विश्व तक पहुॅंचना चाहिए, मुद्दा सबकी जिंदगियों से जुड़ा हुआ है।
आइए एक साथ कहें कि ‘‘प्रकृति के सहयोग में रहे’’
प्रकृति कहने का अर्थ सिर्फ पेड़ पौधों हरयाली से ही न लगाएं इसकी व्यापकता को समझें।
प्रकृति की व्यापकता के बारे में पूरी दुनिया द्वारा अपने लोगों को बताना व जागरूक करना होगा।
हालांकि आपदा न्यूनीकरण प्रोग्राम चलाये जा रहे हैं फिर भी इसकी गंभीरता के मद्देनजर सख्त व कारगर कदम उठाये जाने चाहिए।
स्वयं के बाहर की दुनियां निःसंदेह लुभावनी है पर स्वयं के भीतर की ओर केन्द्रित होने का प्रयास करें क्यों कि प्रकृति के अनुकूल जीने की समझ किसी सत्संग से नहीं अपितु स्वयं के भीतर को जागृत करने से ही सम्भव है। भीतर यदि सत्य को जागृत रखा जाय तो सर्वत्र सब शुभ ही होगा।
हम सभी ने प्राकृतिक आपदाओं के समय में, आज विकास के इस शिखर पर पहुँचे चुके मनुष्य को असहाय किडे़ मकोड़े की तरह भागते देखा है, जिंदगी की सुरक्षा में ऊॅंची ऊॅंची इमारतों से खुले आसमानों की ओर भागते देखा है, जीवन रक्षा हेतु ऊॅंची ऊॅंची इमारतों से छलांग लगाते देखा है, खुद को टेबल, बेड, तखत के नीचे छिपते हुए देखा है, बड़ी बड़ी गाड़ियों को पानी में खिलौने की तरह बहते देखा है, ऊॅंची ऊॅंची इमारतों को ढहते हुए देखा है, भूस्खलन, हिमपात देखा है। सक्षम इंसान जिसने विकास के इस मुकाम को हासिल किया, कभी यही इंसान अपने ही विकास के आयामों के समक्ष किंकर्तव्यविमुढ़ खड़ा विनाश के मंजर का बस देखता रह जाता है।
इस त्रासदी से निपटने के लिए चन्द्रमा या किसी अन्य ग्रह पर जीवन ढूंढना सही रास्ता नहीं होगा। अपितु
ब्रम्हाण्ड की संरचनात्मक विविधता को समझने की आवश्यकता है और निदान की ओर बस संवाद रूप में नहीं कार्य रूप में अंजाम देना होगा।
दुनियां का जितना विकास अपेक्षित था उसके ऊपर तक हम विकास कर चुके है इसके आगे का विकास इंसानी क्षमताओं को कम करने की ओर मुड़ चुका है वैश्विक विकास की दशा शुरू से ही व्यक्ति को शारीरिक स्तर पर कमजोर ही किया है अब बुद्धिको उस दिशा में भी ले जाना चाहिए जहां से इंसान के बहुमूल्य जीवन की रक्षा भी हो सके। धन, व्यापार, व्यवसाय, व्यक्तिगत के आलावा स्वयं के अस्तित्व की सुरक्षा की ओर ध्यान देना वैश्विक आवश्यकता है। रोबोट बनाने व बेचने के अलावा भी अनेकों ऐसे लक्ष्य है जिसे नजर अंदाज करना समूचे वैश्विक तंत्रों हेतु घातक होगा। धन कमाने व उसका उपयोग कर पाने के लिए इंसान को, इस धरती की प्राकृतिक आपदाओं से बचने की ओर भी केंद्रित होना होगा, इस विषय पर यदि पूरी दुनिया एकत्रित प्रयास करे तो आपदा की गतिविधियों को समझा जा सकता है। यदि प्राकृतिक आपदाओं के कारण को जाना जा सकता है तो निवारण भी ढूंढा जा सकता है।
इंसानी बुद्धि करोड़ों सेल्स के सहयोग से निर्मित है और एक सेल के अकेले की क्षमता अकल्पनीय है जो ब्रम्हाण्डिय विस्तार के समानन्तर इतनी बड़ी है कि कुछ भी सम्भव कर सकती है, बस इस दिशा में पूरी वैश्विक ऊर्जा झोंकने की आवश्यकता है।
आपको क्या लगता है कि मैं जो कह रहा हूँ वो गलत है, अपने दिल पर हाथ रखकर स्वयं से पूछिए क्या यह सही नहीं है। सम्बंधित का उपलब्ध डाटा लगातार गम्भीरताओं के संकेत दे रहा है जरूरत है सम्पूर्ण जागरूकता की।
यूँ तो जिंदगी की शुरूआत ही अंत की कहानी लेकर आता है परन्तु अंत को ही सत्य मानकर क्या हम अपनी बहुमुल्य जिंदगियों को खुद की लापरवाहियों से खत्म होने से पहले खत्म होने दे सकते हैं । जवाब निश्चिततः होगा नहीं।
क्रमशः
Samadhannews365
नीरज
अनंत शुभकामनाएं



No comments